Saturday, 11 August 2012



 vyaktigat vichar aur unke aadarsh 
ऐतिहासिक घटनाक्रम में देश और समाज के विकास का मिला जुला वर्णनं मिलता है. वर्तमानं समय में राष्ट्र राज्यों  ने बहुतेरे प्रकार की स्वतंत्रता आमजनो को सिर्फ दी है बल्कि उनका हनन हो इसका भी प्रावधान किया है. जीवन की स्वतंत्रता के अधिकार के बाद, अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता का स्थान आता है. आज प्रजातंत्र मूल रूप से इसी स्वंत्रतता पे आधारित है. लेकिन अभिव्यक्ति की स्वंत्रता क्या है? इसके कितने आयाम हैं? मुख्य रूप से ये कहा जा सकता है की अभिव्यक्ति दो प्रकार की हो सकती है, एक तो स्वंतंत्र विचार करने का  अधिकार, और दूसरा इस प्रकार विकसित स्वंतंत्र विचार को समाज में  अभिव्यक्त   करने का अधिकार. बाकि सारे आयाम इन्ही दो आधारभूत स्वन्तन्त्रताओं के विविध रूप मात्र हैं.  जहाँ तक " स्वंतंत्र विचार करने का  अधिकार" की बात है, सूक्छम मस्तिस्क इसमे भी दो प्रकार परस्तुत कर देता है.  

उदाहरण के तौर पे मान लेते हैं के पहला "व्यक्तिगत" है और दूसरा "सामाजिक". उदाहरण का प्रयोग इसलिए किया गया है क्योंकी दोनों अंतर्गुथित हैं. "व्यक्तिगत" स्वंतंत्र विचार करने का  अधिकार, एक बड़ी व्यापक अवधारणा है. "व्यक्तिगत" स्वतन्त्र विचारों की जननी वास्तव में आस पास का वातावरण और उस वातावरण पर की गयी प्रतिकिर्या है. व्यक्तिगत शब्द इस तथ्य का सूचक है के यह व्यक्तिजनित है.  यदि मूल्यों का विकास विधिवत हुआ है तो आदर्श विद्यमान रहते हैं. यह आदर्श एक सुन्दर समाज की परिकल्पना तो करते हैं, लेकिन आरम्भ एक व्यक्ति से करते हैं. इन अर्थों में ये विषय व्यक्तिवाद का सूचक हो जाता है. हाँ! लेकिन व्यक्तिवाद मानवता का पोषक भी हो सकता है और निरंकुश भीआदर्श मूल से सामाजिक ही होते हैं. मानवता का व्यवहार करना समाज में व्याप्त बुराइयों से दूर रहना सामाजिक होने का मुख्य लच्छण है.  मानवता का व्यवहार तभी संभव है जब मानव छुद्र दुर्गुणों जैसे: क्रोध, झोभ, लालच, मोह और सम्मोहन से दूर रहे और अहम् को समाप्त कर दे

उपरोक्त विचारों की श्रिंखला में एक तथ्य तो स्पष्ट  हो गयास्वंतंत्र विचार करने का अधिकार का मूल मानवता का व्यवहार हैमानवता पे आधारित अभिव्यक्ति कष्टदाई नहीं हो सकती. ऐसी अभिव्यक्ति जोड़ने का काम करती की तोड़ने का. साक्छ्यों की कमी नहीं जो यह पुनः सिध्ह करे के मानवता रहित अभिव्यक्तियाँ युद्ध तक का कारन बनती रही हैं. यह एक अस्थापित सत्य है जो  किसी भी इस्थिति और परिस्तिथि में सामान रूप से लागू है, दो व्यक्तिओं से लेकर दो राष्ट्रों तक. मुझे तो यह भी लगता है ये सत्य सिर्फ जीवित नहीं वरन निर्जीव वस्तुओं पर भी लागू होता है. न्यूटन ने भी अपने प्रयोगं से क्रिया और प्रतिक्रिया को सिद्ध किया है.  

मानवता पे आधारित  "व्यक्तिगत स्वंतंत्र विचार" करने के  अधिकार से ही सुन्दर और  स्वंतंत्र अभिव्यक्ति हो सकती है. और तभी प्रजातंत्र आदर्श रूप में स्थापित किया जा सकता है और समता लायी जा सकती है. सावधान! साम्यवाद संभव नहीं है, ये मात्र  कोरी कल्पना है, ऐसा कुछ संशयवादी कह सकते हैं.  शायद आंशिक रूप से ठीक ही कहते हैं. लेकिन ऐसी स्थिति में क्या आदर्वाद को स्थापित करने का प्रयास किया जाए है? मेरे विचार से हम कल्पनाओं से उठ कर उच्चतम आदर्शवाद (जिसका उद्देश्य साम्यवाद है) स्थापित करने का लक्ष्य साधते हैं, और फिर निरंतर इसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं. एक के बाद एक. प्रकृति मानव की असहाय प्रकृति का आभास दिलाती  है. एक समाज और एक देश की योग्यता  भी  पूर्ण नहीं है. ये तो युगों युगों का प्रश्न है. यही तो जीवन है


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